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________________ 88. जैनपदसागर.प्रथमभागसभी करानेका अधिकार । जिनगृह प्रतिमाप्रतिष्ठा, तथा धमके काम अपार ॥ व्रतविधानकी सभी प्रक्रिया, अथवा प्रायश्चितका परचार । गृहधर्मीका करावें, इसभव परभव हित-व्यवहार धर्मक्रियाकों करते करते, जो उत्तम कहलाते हैं। कोई उन्हींमें ॥ १॥ क्रियाविशेष गृह-. स्थाचारज, करते जिनका.सुनो वयान । जाके सुनते समझलें, सर्वकालको चतुर सुजान ।।. दीक्षान्वय अवतारक्रियामैं, ग्रहन करै जिनमत सुखदान । चौथा दरजात्याग कर, कुदेव पूजन निंद्यमहान. । श्रीअरहंतदेवके पूजक, सदगृहस्थ कहलाते हैं। कोई उन्हींम०॥२॥व्रतका चिन्ह जनेऊ धार, नवमी क्रियाविषै व्रतवान् । फिर क्रम क्रमसे पंद्रमी, क्रिया लहै उपनीत . महान । प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता, जानत नय. निक्षेप प्रमान् । सो बडभागी गृहस्थाचारज जानो सम्यक्रवान् ॥ सभी गृहस्थी उनको मानैः जों श्रावक कहलाते हैं। कोई उन्हींम०॥३॥
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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