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________________ १७६ जैनपदसागर प्रथमभागकुगुरु निषेध | · ३७ लावनी, रंगत-लंगड़ी | कामक्रोधवशि होय कुधी जिनमतकै दाग लंगाते हैं । धिक् धिक् इनको धर्म विन, जिनधर्मी कहलाते हैं | टेर ॥ जिनवरवचन उथापि आपने बागजाल विस्तार दिया। खूव विचारी आपका, संघसहित निस्तार किया ॥ ब्रह्मचर्य व्रत घारि बहुरि श्रृंगार गलैका हार किया । खानपान में पुष्टरस, भोजनको इकत्यार किया । इत्र फुलेल सुगंध लगाकर, कामदाह उपजाते हैं ॥ धिक् धिक् ॥ १ ॥ सुनो महाशय अर्ज. हमारी, जरा गौर करके देखो । मृग तृणभक्षी जिन्होंके सुखसमाजको नहिं लेखो ॥ शीत उष्ण दुख सहैं निरंतर, अरु संकित मनमैं देखो । वे भी वनमै मृगी लखि, कामक्रियामें रत देखो ॥ कहो आप फिर किस कारनसें निरविकार रह जाते हैं ॥ धिक् धिक् ॥ २ ॥ भोजन आप करावे बहुविधि, शुद्ध कहावै सेवकसों | यह चा
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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