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________________ १५२. जैनपदसागर प्रथमभागकर, जाय गमन तिहबारी हैं ॥ यंत्र मंत्र नहि करें कुकिरिया, निरतिचार बमचारी हैं । प्रमतम०॥२॥त्रण कंचन अरि मित्र बराबर, जीवन मरन समान गिने । सह परीषह बीस दो, समताको परधान गिने ॥ काम क्रोध मद मोह लोभके, परिकर सब दुखदान जिने। विषय-वासना महा अप,-वित्र पापकी खान गिन ॥ लोकरीति परिहरी जिन्होंने, वृत्ति अलौकिक धारी हैं। भ्रमतम०॥३॥ तारन तरन जैनके गुरुको, यह स्वरूप बाहिर जारी। उर अंतरमै शुद्धरत-नत्रयनिधिक सहचारी॥ये ही सरन सहाय जगतमैं, शिवमगमैं ये सहचारी। अचरजकारी जिन्होंकी, परनति है जगत न्यारी ॥ गुरुपदकमल 'जिनेश्वर'-उरमैं वास करो अनिवारी है ॥ भ्रमतम०॥४॥ .. ३५ । लावनी रंगत-लँगड़ी। . या कलिकाल महानिशिमैं जिन, वचन चंद्रिका जारी हैं। परिगह त्यागी गुरुकी, सेवा
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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