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________________ गुरुस्तुतिपद-संग्रह, ।" ( ३३ ) रेखता - निरखिकै पग धेरै भूपर, मधुर हित मित वच कहैं । आहार शुद्ध सम्हाल वृष उपक करन निरखि घरें हैं | मलमूत्र हू निर्जंतु भुवि, एकांत मय छेपैं सही । परवंदनादिक अवसि कार ज, नित करें वृपकी मही । पंचेन्द्रियको बस मैं राखै, तिनको वर्णन सुनो सुजान ॥ अचरज ॥ सुंदररूप सची रतिरमनी, वा राक्षसनी भेष कराल । सुखदुखकारी अवर जे, जड चेतनके क्षेप कराल || कोमल कठिन दुगंध सुगंधित, रसनीरस वच शुद्ध सवाल । समकर जानै नं जानें, पर परनतिकों अपनी चाल । १६९. सैर-दृष्टि सबदि छांड़िकै, नासाग्रमैं थिरता लही । मन विषय अवर कषाय तजि, शुभध्यान में थिरता गही ॥ दृढ धारि आसन मौन सेती, शुद्ध आतम ध्यावते । तनमनवचनवश करें गुरु वे, सुरग-शिव-सुख पावते ॥ एकवार भोजन आदिक अठ-वीस मूल गुन-धारक जान ॥ अचरज० ॥ २ ॥ ...
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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