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________________ ..10Sa2 १६६ जनपदसागर प्रथमभाग- . निजबलके घरवा॥ लूमझूम०॥२॥देख उन्हें जो (कोई) आय सुना, ताकीतो करहूं न्योछरवा। सफल होय शिर पायपरसिक, बुधजनके सब . कारज सरवा ।लूमझूम० ॥३॥ २९ । राग-सोरठमें ठुमरी। निरग्रंथ यती मन भावे, कुगुरादिक नाहिं सुहावें । निरग्रंथ०॥ टेक ॥ वीतराग विज्ञान-भावमय, शिवमारंग दरसावें ॥ निरग्रंथ०॥१॥ रत्नत्रयभूषण युत सोहत, निज अनुभूति रमावें । निरं ॥१॥ विनकारण जगबंधु जगतगुरु, हित उप देश सुनावै ।निरग्रंथ०॥४॥ कर्मजनित आचार त्याग, परमातमकों ध्यावें ॥ निरग्रंथ०॥५॥ मानिक भवि सतगुरु सुचंद्रलखि, आकुल ताप बुझा३ । निरग्रंथ० ॥६॥ ...... ३०। राग-गजल रेखता । : जिन रागरोष त्यागा, सो सतगुरु है हमारा ! तजि राजरिद्ध तृणवत, निजकाज निहारा ।टेक रहताहै वो वनखंडमें, परि. ध्यान कुंठारी। जिन
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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