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________________ १५२ जैनपदसागर प्रथमभाग॥ऐसे०॥टेक ॥ जिन समस्त परद्रव्यनिमाही, । अहंबुद्धि तज दीनी । गुनअनंत ज्ञानादिक मम पुनि, स्वानुभूति लखलीनी ॥ ऐसे०॥१॥ जे निजबुद्धिपूर्वरागादिक, सकल विभाव निवारें . पुनि अबुद्धिपूर्वक नाशनको, अपनी शक्ति सम्हारै ॥ ऐसे०॥ २ ॥ कर्म-शुभाशुभ-वंध विषयमैं, हर्ष विषाद न राखें । सम्यग्दर्शन-ज्ञानचरन-तप, भाव-सुधारस चाखें ॥ ऐसे जैनी० ॥३॥ परकी इच्छा तजि निजवल सजि, पूरक कर्म खिरावें । सकल कर्म” भिन्न अवस्था, सुखमय लखि चितचावें ॥ ऐसे० ॥ उदासीन शुद्धोपयोगरत, सबके दृष्टा ज्ञाता । वाहिज रूप नगन समता कर, भागचंद सुखदाता॥ ऐसे०॥५॥ ९। राग-जंगला। शांतिवरन मुनिराई वर लखि शांतिगाटेका उचर गुनगनसहित मूलगुन,,सुभग बरात १ अबुद्धिपूर्वक हुये रागद्वेषादि भावोंको नाश करनेके लिये। .
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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