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________________ - गुरुस्तुतिपद-संग्रह । १४९ भवदधिपारा हो ॥ कवधों०॥ टेक ॥ भोगउदास जोग जिन लीनो, छांडि परिग्रह-भारा हो। इंद्रियदमन वमनमद कीनो, विषयकषायनिवारा हो ॥ कवघों० १॥ कंचन काच बरावर जिनक, निंदक बंदक सारा हो । दुद्धर तप तपि सम्यक निजघर, मनवचतनकर धारा हो ॥ कबधों०॥ २ ॥ ग्रीषमगिरि हिम सरितातीरें, पावंस तरुतरठारा हो । करुणा भीने चीन त्रसथावर, ईपिंथ समारा हो ॥ कवधों० ॥३॥ मार-मार व्रतधार शीलदृढ, मोहमहामल टारा हो । मास मास उपवास वास वन, प्रामुक करत अहारा हो ॥ कवधों ॥ ४॥ औरतरौलेश नहिं जिनके, धर्म-शुक्ल चितधारा हो । ध्यानारूढ गूढ निज-आतम, शुधउपयोग विचारा हो ॥ कबधों०॥ ५॥ आप तरहि अवरनकों तारहिं, भवजलसिंधु अपारा हो । दौलत ऐसे १ सव ।करुणारससे भीजे हुये । ३ कामदेवको मारकर । ४ आर्तध्यान । ५ रौद्रध्यान । ६ धर्मध्यान 1.७ शुक्लध्यान | . - -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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