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________________ १४० · जैनपदसागर प्रथमभागअछरजुत गनघरों बरनी॥ परम०॥॥ निरखेपोनयन जोगनतें, भविनको तत्वअनुसरनी । विथैरनी शुद्ध दरसनकी,मिथ्यातम मोहकी हरनी परम०॥२॥ मुकतिमंदिरके चढनेकों सुगमसी, सरल नीसरनी । अंधेरे कूपमें परता, जगत उद्धारकी करनी॥ परम०॥३॥ तृषाके ताप मेटनकों,करत अमिरत वचन झरनी। कथंचितवाद आचरनी, अवर एकांत परिहरनी॥परम०॥४॥ तेरा अनुभव करत मोकों,बहुत आनंद उरभरनी। फिरयो संसार दुखिया हूं, गही अब आन तुम. संरनी०॥ परम०॥५॥ अरज़ बुधजनकी सुनि जननी, हरो मेरी जनममरनी । नमूं करजोर मनवचत, लगाके सीसको धरनी॥परम०॥६॥ ; २३ । राग-परज मारू । . . जिनवानी प्यारी लागै छै महराज, सब दुख हारी अतिसुखकारी ॥ जिनवानी० ॥ टेक। अनंत जनमके कर्म मिटत हैं, सुनतहि तनक १ निक्षेपनयके अनुयोगसे । २ विस्तारनी। ३ नसैनी । ४ स्याद्वादं
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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