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________________ 44 ६३६ : जैनपदसागर प्रथममार्गप्रगट करि आप बांचिये, पूजा वंदन कीजै। दरक स्वरचि लिखवाय सुधायसु, पंडितजनकों दीजै ।। कलिमैं ॥६॥ पढतै सुनतें चरचा: करत, है संदेह जु कोई। आगम माफिक ठीक करै के, देख्यो केवलि सोई । कलिमें० ॥७॥ तुच्छबुद्धि कछु अरथ जानिक, मनसों विंग उठाये। औधिज्ञान श्रुतज्ञानी मानों, सीमंधर मिलि आये ॥ कलिमैं० ॥ ८॥ ये तो आचारज हैं सांचे, ये आचारज झूठे। तिनिके ग्रंथ. पढ़ें नित बेर्दै, सरधा ग्रंथ अपूठे॥ कलिमैं॥९॥ सांचझूठ तुम क्योंकर जान्यो, झूठ जान क्यों . . पूजो । खोट निकाल शुद्धकर राखो, अवर बनावो दूजो ॥ कलिमैं० ॥१०॥कोन सहामी बात चलावे, पूछ आनमती तो। ग्रंथ लिख्यो तुम क्यों नहि मानो, ज्वाब कहा कहि जीतो ॥ कलिमैं ॥ ११ ॥ जैनी जैनग्रंथके निंदक, हुँडासर्पिनी जोरा । धानत आप जानि चुप रहिये, जगमैं जीवन थोरा०॥ कलिमैं० ॥१२॥ १ आजकल-'सुधवाय छपाकर' कहना चाहिये । -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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