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________________ १२६ जैनपदसागर प्रथमभाग (३)जिनवाणी स्तुतिपदसंग्रह। ..... दौलतरामजीकृत शास्त्र स्तुति। जिनबैन सुनत, मोरी मूल भगी । जिनवैन ।। टेक । कर्मखभाव भाव चेतनको, भिन्नपि. छानन सुमति जगी। जिनवैन० ॥१॥ ज़िनअनु भूति सहज ज्ञायकता,सो चिर तुष-रुष-मैल पगी यादबाद-धुनि-निर्मल जलतें, विमल भइ सम. भाव लगी। जिनबेनगा॥ संशय-मोह-भरमत विघटी, प्रगटी आतमसौंजे संगी। दौल अपू. एब मंगल पायो, शिवसुख लेन होंसे उमगी। जिनबैन०॥३॥ (२) जय जय जग-भरमतिमर-हरन जिनधुनी ॥ जय जय० ॥ टेक ॥ याविन समुझे अजौं न सौंज-निजमुनी। यह लखि हम निजपर अवि, वेकता लुंनी॥२॥जय जय०॥शाजाको गनराज अंग,-पूर्वमय चुनी। सोई कही है कुंदकुंद,-. १ निज परणति । २ इच्छा । ३ अभ्यस्त की ४ । काटदी ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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