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________________ हजूरीपद-संग्रह । : १२१ गुन जामै रहै । ऐसे०.१.१॥ तीन काल परजाय द्रव्य गुन, एक समय जाको ज्ञान गहै।। ऐमे० ॥जो निज शक्ति गुफ्त छी अनादी, सो सब प्रगट अब लहलहै ॥ ऐसे०॥ ३ ॥ नंतानंत काललों जाको, सांत सुथिर उपयोग बहै। ऐसे०॥४॥ मन-वच-तनतें बंदत वुधः जन, ऐसे गुननको आप चहैं ॥ ऐसे०॥५॥ (१४८) तुम विन जगमैं कौन हमारा तुमगाटेक जोलों वारथ तोलों मेरे, विन स्वारथ नहिं देत सहारा ।। तुमविन० ॥१॥ अवर न कोई है या जगमें, तुमही हो सबके उपगारा ॥तुमविना २॥ इंदं नरिंद फनिंद मिल सेवत, लखि भवः सागर-तारनहारा ॥ तुमविन० ॥३॥ भेदविज्ञान होत निज परका, संशय भरम करत निरवारां ।। तुम०॥४॥ अनंत जन्मके पातक नाशत,बुधजनके उर हरषअपारा तुम०॥५॥
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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