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________________ धनि मुनि निज आतम हित कीना धनि मुनि जिन यह भाव पिछाना ध्यानपान पानदि नाशी त्रेस प्रति गरी नित पीज्यो श्रीधारी जिनवानी सुधासम जानक निर्गन्थ यती मन भावे कुगुरादिक नाहि सुझाव निरखत जिनचंद्रवदन वापर सुरुवि भाई निरखि सखि ऋपिनको ईश यह ऋपजिन निरखि सुख पायो जिनमुखचंद नेमिजी तो केवलज्ञानी ताहीकों मैं ध्या नेमिप्रभुकी श्यामबरन छवि नैनन छाय रही नैननको बान परी दर्शनकी १३६ पतित-उधारक पतित रटत है सुनिये अरज हमारी हो पझासम्म पद्मपद पना-मुक्ति-सम-दर-सावन है परम गुरु वरसत शान झरी 'परम जननी धरम कथनी, भवार्णव पारकों तरनी परम वीतरागी गृहत्यागी शिवभागी निरनन्य महान प्रभु अब हमको होहु सहाय 'प्रभुजी अरज म्हारी उरधारों प्रभुजी प्रभू सुपास जगवासत दासनिकास प्रभुजी मोहि फिफर अपार: .. १०३
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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