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________________ " --... हजूरी प्रद- संग्रह | १.१९ मनवचतन बुधजन वंदत है, द्यो समता सुख . दाई ॥ जगत० ॥ ४ ॥ i १४५ | राग-रेखता । - अरज जिनराज यह मेरी, इस्या अक्सर बतावोगे ० ॥ अरज• ॥ टेक ॥ हरो इन दुष्ट करमनको, सुकतिका पद दिलावोगे ॥ अरजः ॥ १ ॥ करूं जब भेष मुनिवरका, अवर विकलप विसारूंगा । रहूंगा आप आपेमैं, परिग्रहको विद्यारूंगा || अरज• ॥२॥ फिरचा संसार सारेमैं दुखी मैं सब लख्या दुखिया । सुनत जिन चानि गुरुमुखिया, लख्या चेतन परम सुखिया ॥ अरजः || ३|| पराया आपना जाना, बनाया क़ाज मनमाना । गहाया कुगति तैखाना, लहाया विपति विललाना || अरज० ॥ ४ ॥ जगतमें जन्म अर मरना, डरा मैं आ लिया शरना । मिहिर बुधजनपै या करना, हरो परतें ममत धरना ॥ अरज० ॥ ५ ॥ -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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