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________________ - - ११२ जैनपदसागर प्रथमभागबुधि म्हारी हाथ जोरिके पांय परत हुँ,आवा. गमन निवारी हो॥ प्रभुः॥३॥.....: ... .१३४ । राग जंगला। : . : मेरो मनुवाअति हरषाय तोरे दरसनसों। मेरे ॥ टेक ।। शांति छवी लखि शांतभाव है, आकुं. लता मिटजाय, तोरे दरशनसों । मेरो ॥१॥ जबलों चरन निकट नहिं आया, तब आकुलता थाय । अब आवत ही निजनिधि पाया, निति नव मंगल थाय, तोरे दरशनसों । मेरोगाबुष जन अरज करें करजोरे, सुनिए श्रीजिनरायः। जबलों मोख होय नहिं तबलों, भक्ति करों गुन गाय, तोरे दरशनको ॥.मेरो०॥३॥ ..... १३५॥ राग खमाचः। .: - छवि जिनराई राजै छ । छवि० ॥टेक॥ तर अशोकतर सिंहासन बैठे, धुनिघन गाजे है ॥छवि०॥ १॥ चमर छत्र भामंडलदुति, कोटिभान दुति लाजै छ। पुष्पवृष्टिः सुरनभत दुंदुभि मधुर मधुर सुर बाजें है ॥ छवि० ॥२॥
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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