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________________ १२४ १७ करम देत दुख जोर हो साइयां करमदा कुपेच मेरे है दुख दाइयां हो कलिमैं नथ बड़े उपगारी कह विह कछु सुनो सुगुरुके जिनशासन अनुसारी है काम क्रोधवश होय फुधी जिनमतमें दाग लगाते है काम सरे सत्र मेरे देख्ने पारस स्वाम किंकर अरज करत जिन साहिब मेरी ओर निहारो कीजिये रुपा मोहि दीजिये स्वपद कुंथुनके प्रतिपाल कुंथु जग तार सार गुनधारक है केवलजोति सुजागीजी अब श्रीजिनवरके ग-च-छ गिरिवनवासी मुनिराज मनसिया म्हारे गुरु समान दाता नहि कोई वरननचिह वितार चित्तमें वंदन जिन चवीसकरों चलि सखि देखन नाभिरायघर नाचत हरिनटया चंदनिनेश्वर नाम हमारा, महासेनसुत जगतपियारा बंद जिन विलोकवेत फंद गाल गया चंद्रानन जिनचंद्रनाथके चरन चतुर चित ध्यावतु है चितामणि खामी सांचा साहिय मेरा छवि जिनराई राज १५५ १८ २२ ११२ . . . जगतपति तुम हो श्री जिनराई ११८
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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