SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (*) उनके जीवनको समझाने वाली कुंजी तो कमीको लोप हो गई है। हे प्रभो ! अत्र इस कुंजीका जाननेवाला कोई दिखाई नहीं पडता । इन भेदको समझाने वाला कोई नहीं मिलता और इसीसे यह बात प्रसिद्ध की गई कि इस कालमें पूर्वका ज्ञान नष्ट हो गया है, मैन पर्येय ज्ञान किसीको नहीं होता, कोई अपने पूर्व भव नहीं मान सकता । अब तो केवल शास्त्रका मनमाना अर्थ करनेवाले ही रह गये है | हो । कैसी खेदजनक स्थिति ' नाय! जब सत्र ही नष्ट हो गया तब आप ही कैसे बचे ! क्या आत्मापर - आत्माकी अनन्त शक्तियोंपर क्षुद्र देश काल असर कर सकते हैं ? क्या कालके ऊपर किसीका भी साम्राज्य नहीं चल सकता ! यदि नहीं ही खेल सकता तो हे नायें | सबके भक्षण करनेवाले कालका भी आपने कैसे काल कर दिया जबतक आप विद्यमान हैं- जब तक देश काल से अपरिछिन्न आत्मशक्तिवाले आप सरीखे महात्मा मौजूद हैं - तबतक आपका प्राप्त किया हुआ पद यह मनुष्य अपनी सेवा द्वारा प्राप्त कर सकता है, ऐसी मुझे पूर्ण श्रद्धा है । इस श्रद्धाको भले ही कोई नास्तिकताको उपाधि प्रदान करे पर मेरे हृदय मेंसे यह श्रद्धा कभी नहीं खिसकनेकी है। महाराज ! यह कैसे हो सकता है कि आत्माका स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाय ' फिर ज्ञान, अथवा पूर्व, जो ज्ञानको छोडकर भिन्न कुछ वस्तु नहीं हैं, कैसे नष्ट हो सकता है और जब आत्माकी प्रधान शक्ति ही नष्ट हो जायगी तत्र बचेगा ही क्या ? देखिये तो भावस्य णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चैव उप्पादो अर्थात् सत्का विनाश और असत्का उत्पाद कभी नहीं होता और यदि ऐसा ही होने - · -
SR No.010369
Book TitleJain Tithi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy