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________________ इतनी संकीर्ण दृष्टि होगई है और अभिमानका सानाच इतना बढ़गया है कि उसके तोड़नेके लिए सामान्य हावीरी नहीं किन्तु गन्ध गनकी जबरत है। छोटे छोटे तारे इस गाहे अन्धकारने कमी नहीं सेद सकेंगे। अब तो हमें आपनी-मानसर्यको-ही आवश्यकता है। आप सदा विद्यमान रहते हो, धर्मकी रक्षा करते हो, उसके हिक्के लिए प्रयत्न करते हो, उसे नष्ट होनसे बचाते हो और उसके चारों ओर अपने धर्मरनक हायाँको हर समय रक्सा करते हो। पर यह हाल बहुत थोड़े जानते हैं । जब यह मन ही थोडेसे लोगोंने बात है तब उसपर श्रद्धा-भक्ति-रखनेवाले पदि कोई वि. रले हों तो इसमें आश्चर्य क्या ! पर ऐसे विरले दो, अर, पंच, दश इस समय, मी हाँ तो वे बहुत अच्छे हैं। यह मैं आपच्चे शुद्ध अन्तःकरणने स्विास दिलाता हूँ । हे पाक ! आपको मानती अ. यत्रा पूजनकी कुछ दरकार नहीं है, यह में अच्छी तरह जानता हूँ । वेग आपके पोचारही सवी संमनें या न समझे इसी आपने परवा नहीं, पर इस अश्रद्धासे उन विचारोंच्न बहुत अहित हेता है। वे किसी काममें जरामे विनके आजानेर माग जाते हैं-हिम्मत हार जाते हैं । जो उन्हें खबर हो, अद्धा हो-अविचल प्रद्धा हो कि आप शासनके नायक, देवाधिदेव, प्रताभित सूर्य बैठे हुए हैं तो फिर हम आपके पुत्र शुभकामनाओंको किस लिए पाठी रहने दें! जिस दिर पूर्ण मन और पूर्ण बरसे आगे नहीं बढ़ते ! पइंगा लडरुडाऊंगा तो हायके पकडनेवाले-सहारा देनेवाले-पितानी पास ही खड़े हैं ऐसी श्रद्धा हो तो पालक कैसे चलना न सीले ! पर क्या किया जाय ! आपने त्यापित किए हुए नेताओमें ही आपने अस्तित्व
SR No.010369
Book TitleJain Tithi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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