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________________ सत्यवादी। सत्य एक अपूर्व रत्नाकर है, नो इसमें अवगाहन करते है, उन्हें अलभ्य रत्न प्राप्त होते है । प्रथम भागअगहन, पौष श्रीवीर नि. २४३९ अंक WAM ~ - श्रीसीमन्धरस्वामीके नाम खुली चिठी। (लेखक, श्रीयुत् वाडीलाल मोतीलाल शाह) प्रेमके समुद्र हे प्रभो ! मैं आज्ञानी हूं, चारों ओरसे मोहपाशमें फँसा हुआ हूं, अशरण है और अनेक प्रकारकी आधि व्याधिसे असित हूं। ऐसी भयंकर स्थिति में किसके पास जाकर मै भीख मागं: किससे ज्ञानका मार्ग समझं ? किसके पास जाकर हृदयकी उत्कण्ठा मिटाऊं और किसके द्वारा ज्ञानांजन अंजवाकर अज्ञानान्ध दूर करूं? मुझे ऐसा परम पुरुष अमीतक कोई प्राप्त नहीं हुआ। इसीसे मूलकर यहां वहां भटकता फिरता हूं-इधर उधर टकराता फिरता हूं। कहीं भी सञ्चेमार्गके न मिलनेसे मेरी यह हालत होगई है। पर हे विभो! आप तो दयालु हो, भक्त वत्सल हो, अन्धेके
SR No.010369
Book TitleJain Tithi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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