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________________ (६) और जो उत्सर्पिणी में चौवीस तीर्थकर होते हैं, वे मुक्तजीव फिर उलटकर किसी उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी में नहीं आते. और हर एक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में उनसे पृथक् २ नये जीव तीर्थंकर होते हैं; ऐसा काल का क्रम अनादि से चला आता है। जहां सूर्यतारादिगण निश्चल हैं, वहां काल का व्यवहार' नहीं है; इसलिये काल द्रव्य कल्पित याने (औपचारिक) द्रव्य है । अतद्भाव में तद्भाव ( अन्य में अन्यज्ञान ) उपचार कहलाता है । इसके स्कन्धादि भेद नहीं हैं । इन पूर्वोक्त पड् द्रव्यों की व्याख्या को द्रव्यानुयोग कहते हैं। जिसका विस्तार सम्मतितर्क, रत्नाकरावतारिका, प्रमाणमीमांसा, अनेकान्तजयपताका वगैरह ग्रन्थों में और भगवत्यादि सूत्रों में किया हुआ है, उनके देखने से स्पष्ट मालूम होगा । (२) चरणकरणानुयोग; जिसमें चारित्र धर्म की व्याख्या अतिसूक्ष्म रीति से की है; उसे आगे चलकर दो प्रकार के धर्म के प्रकरण में कहेंगे। इसका विस्तार आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग वगैरह में किया हुआ है । (३) गणितानुयोग का अर्थ गणित की व्याख्या है जो लोक में असहय द्वीप और समुद्र हैं, उनकी रीति भाँति और
SR No.010367
Book TitleJain Tattva Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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