SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२१) वे अनादि कर्म, जीव के साथ हमेशा के लिये संवन्ध नहीं रख सकते, लेकिन उनका परावर्तन [लोट पोट] आत्मप्रदेश के साथ हुआ करता है। कर्मों को जीव किस तरह ग्रहण करता है और किस रीति उनसे मुक्त होता है, इसका विस्तार कर्मग्रन्थों में स्पष्ट रीति से लिखा हुआ है। मूलकर्म एक जीव के ऊपर आठ प्रकार के होते है उनके नामः-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीयकर्म, मोहनीयकर्म, आयुष्ककर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अन्त रायकर्म । किन्तु इन कर्मों के उत्तर भेट तो १५८ कहे हुए हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के उत्तर पॉच भेद हैं-मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । इन पूर्वोक्त पाँचो आवरणों के दूर होने से जैनशास्त्रकार पॉच ज्ञानों की प्राप्ति बताते हैं। उनके नाम-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनापर्ययज्ञान और केवलज्ञान, है। वास्तविक में तो केवलज्ञान के, बाकी चारों मतिज्ञानादिक अंश हैं। जैसे सूर्यपर जिस २ तरह मेघ का आवरण बढ़ता जाता है, उसी उसी तरह सूर्य का प्रकाश कम होता जाता है। वैसेही ज्ञान भी, न्यूनाधिक आवरण लगने से न्यूनाधिक प्रकाशित होता है,
SR No.010367
Book TitleJain Tattva Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy