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________________ योग्यता को स्वीकार न करें तो चक्षु के प्राप्यकारी माननेवालों को, चक्षु से गन्ध का ज्ञान क्यों नहीं होता ? एवं चन्द्र के भीतर उसके रूप की तरह उसकी क्रिया का भी चक्षुरिन्द्रियद्वारा प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता। यदि उसके प्रत्यक्ष न होने का कारण दूरता कहियेगा, तो फिर उसके लाञ्छन [ कलङ्क] का भी प्रत्यक्ष न होना चाहिये । इसलिये योग्यता छोड़कर दूसरा कोई कारण नहीं माना जा सकता। यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, जो वाह्येन्द्रियों की सहायता लेता है, अपारमार्थिक प्रत्यक्ष, अथवा पारमार्थिक परोक्ष माना जाता है । उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' में इसीरीति से विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से भिन्न, याने इन्द्रिय वगैरह की सहायता के विना, केवल आत्माद्वारा उत्पन्न होनेवाला' ज्ञान, पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाता है । उसके दो भेद हैं; एक विकल और दूसरा सकल । विकल के भी अवधि * और मनःपर्यय के नाम से दो भेद हैं। केवलज्ञान $ को सकल कहते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, अन्धकार और छाया आदि व्यवहित रूपी द्रव्यों को भी प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान, अवधिज्ञान कहलाता है। * मनुष्यक्षेत्र में रहनेवाले सभी मनवाले जीवों के मनरूप द्रव्य के पर्यायों को प्रत्यक्ष करनेवाले ज्ञान को मनःपर्यय ज्ञान कहते है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल में होनेवाले तीनों लोक के पदार्थों का प्रत्यक्ष करनेवाला शान, केवलशान कहा जाता है।
SR No.010367
Book TitleJain Tattva Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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