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________________ तो अनवस्था दोष गले पतित होजायगा । इसपर यदि कोई यह कहे कि पृथ्वी, अकुर आदि का कोई कर्ता प्रत्यक्ष नहीं दीखता इसलिए उसका कर्ता ईश्वर ही मानेंगे । उसके समाधान में यही कहाजाता है कि पृथ्वी, अकुर ईश्वर की अपेक्षा नहीं रखता; केवल नैयायिकलोगों ने ही ईश्वर को 'इच्छामात्र के योग से' जगत् का निमित्तकारण मात्र माना है। किन्तु ईश्वर से इच्छा का कुछ संबन्धही नहीं है, यह पहिले बहुत स्पष्ट रूप से कहा जाचुका है । कदाचित् वादी के संतोष के लिए ईश्वर में इच्छा मान भी ली जाय, तो भी ईश्वरकी इच्छामात्र से पृथ्वी या अकुरादि नहीं हो सकते; क्योंकि साथही साथ मृत्तिका, जल, अग्नि, वायु आदि की भी तो अपेक्षा रहती है । यदि इच्छामात्र से ही कार्य की सिद्धि होती हो तो पत्थर में घास क्यों नहीं उगती ? । अगर यह कहें कि उसकी वहाँ पर वैसी इच्छा नहीं है तो यहभी कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो ईश्वर को कर्ता मानते हैं वे उसको व्यापक भी तो मानते हैं। तथा उसकी इच्छा, कृति और ज्ञान को भी नित्य माना है । तो अब घास आदि सर्वथा समस्त स्थल पर होना चाहिए, इसमें कुछ बा. धाही नहीं हो सकती। अगर यह कहा जाय कि मृत्तिका जलादि की अपेक्षा ईश्वर को रखनी पड़ती है। तो तुझारे मत में ईश्वर सापेक्षही हो जायगा । कि और जो सापेक्ष होता है वह असमर्थ ही होता है। . दूसरी यह बात है कि जगत् की उत्पत्ति के पहिले ही जीव और कर्म मानने पड़ेंगे । यदि यह कहें कि
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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