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________________ ( ४१ ) कहा जा सकता, इसलिये उनको योगशास्त्रादि से समझ लेना चाहिये । अत्र अर्हन् देव की आज्ञानुसार पूर्वोक्त धर्माराधना के प्रकार को ही थोडासा दिखलाकर में अपने इस व्याख्यान को समाप्त करना चाहता हुँ । पहिले गृहस्थों को न्यायसंपन्न विभवादि ३५ गुणों की प्राप्ति करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये; तब उसके बाद सम्यक्त्वम् उक द्वादश व्रत का अधिकारी होना संभव है ! अत एव द्वादशव्रत पालन करने के लिये श्रावक लोग हमेशा पट् कर्म करते रहेते हैं। लेकिन श्रावकों को हमेशा यही विचार करना चाहिये कि कब इस असार संसार को त्याग करके मुनियोंके वेष से आत्मकल्याण को प्राप्त करूँगा; अथया कव अनित्य गृहपाश को छोड़कर वास्तविक सुख को प्राप्त होऊँगा । पूर्वोक्त भावनाएँ जिसके अन्तःकरण में दृढ़ हो नाती है, वह, गार्हस्थ्य को छोड़, साधु होकर स्वपर ' जीवों का कल्याण कारक होता है । तदनन्तर वह परम्परा से अनन्तसुखमय, निराबाध, अनुपमेय, अक्षय, मुक्ति स्थान को भी प्राप्त करता है । जैनशास्त्रकारों ने लोक के अग्र भाग में जो मुक्ति का स्थान माना है वह उनके गंभीर आशय को सूचित करता है । क्योंकि जब कर्म के बोझे से जीव मुक्त होता है तभी ऊर्ध्वगति को प्राप्त हाता है । संसार में भी ऐसा देखा जाता है कि जो हलका पदार्थ रहता है वह ऊपर को ही उठता है । यहां पर यह शङ्का उठती है कि उस ऊर्ध्वगतिवाले जीव की बराबर ऊर्ध्वगति होती ही रहनी
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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