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________________ ( ३५ ) 1 और प्रमेय का ज्ञान, एक ही माना है । इस तरह तत्त} तस्थल पर स्यादूवाद सार्वभौम की कृपा से समस्त दर्शनकार अपने २ मन्तव्य की रक्षा कर सकते हैं । इसका दृष्टान्त यह है कि नैयायिकों ने द्रव्य, गुण, कर्म से भिन्न, सामान्य और विशेष पदार्थ को माना है, किन्तु जैनशास्त्रकार उन दोनों पदार्थों को स्याद्वाद की आज्ञानुसार वस्तु के धर्म ही मानते हैं । जैसे एक घट की पृथुवुनाकार आकृति मालूम होने से तदाकार अन्य घटों का ज्ञान भी सामान्यरूप से ) होजाता है । और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद होने से भेदज्ञान (विशेषज्ञान ) भी होता है। क्योंकि एकाकार प्रतीति करानाही सामान्य ( जाति ) का धर्म है, और भेद का बोधक ही विशेष है । पूर्वोक्त प्रकार से ( सामान्यरूप से) एकाकार प्रतीति, और भेद भी होसकता है । इसरोति से सामान्य और विशेष को भिन्न पदार्थ मानना उचित नहीं है । यदि कदाचित् सामान्यविशेषात्मक वस्तुधर्म को ही पदार्थ मानने का साहस करें, तो वस्तु अनन्तधर्मात्मक होने से अनन्त पदार्थ हो जायंगे, किन्तु यह बात नैयायिकों को संगत नहीं है। और वस्तुधर्म भी, एकान्त ( केवल ) भेद या एकान्त (केवल) अभेद मानने में सिद्ध नहीं होसकते । क्योंकि वस्तु का धर्म विशेषणरूप है और वस्तु विशेष्य है । किन्तु एकान्त भेद पक्ष मानने में विशेषण- विशेष्यभाव सिद्ध होनाही दुर्लभ है यदि होता हो तो करभ और रासभ के विशेषणविशेष्यभाव मानने में क्या हानि है । इसीतरह एकान्त अभेद पक्ष मानने में भी विशेषणविशेष्यभाव संमत
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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