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________________ (२८.) माने गये हैं। जैसे श्रुत (शास्त्र) के आराधन को श्रुतधर्म, और चारित्र आराधन को चारित्रधर्म कहते हैं। । लेकिन श्रुतधर्म और चारित्रधर्म के बीच में चारित्रधर्म केवल स्वोपकारी ही है, और श्रुतधर्म स्वपरोपकारी है, इसीसे चारित्रधर्म से प्रायः श्रुतधर्म अधिक बलवान है। तथा गृहस्थावस्था में रहकर धर्म की आराधना करने को गृहस्थधर्म कहते हैं और साधु की अवस्था में रहकर जो धर्म की आराधना की जाती है वह साधुधर्म कहलाता है। तथा त्यागकरनेलायक, वस्तु का त्याग करना हेयधर्म और ग्राह्य वस्तुओं के स्वीकार करने को उपादेयधर्म समझना चाहिये । जैसे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्षरूप से नव तत्व जैनशास्त्र में माने हुए हैं, उनमें पुण्य, पाप, आत्रव और वन्ध ये सर्वथा हेय हैं; किन्तु किसीके अभिप्राय से पुण्य भी, परम्परा से मोक्ष का कारण होने से, उपादेय माना जाता है । इसलिये उस पक्ष में तीनही हेय और चार उपादेय हैं। तथा कितनी ही वस्तुओं के ज्ञानमात्र को शेयधर्म कहते हैं। जैसे जीव, अजीव ये दो पदार्थ ज्ञेय हैं; क्योंकि उनके ज्ञान विना शुद्धप्रवृत्ति होना ही कठिन है। और विना शुद्धप्रवृत्ति के निवृत्तिरूप भावधर्म की प्राप्ति होना भी दुर्लभ है। इसी -तरह दान से उत्पन्न हुए पुण्यवन्ध को दानधर्म कहते हैं, जो अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पादान, उचितदान और कीर्तिदानरूप से पांच प्रकार का है। इन पांचों में से प्रथम और द्वितीय दान तो मोक्ष के,
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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