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________________ (२६) नेवाले ही मुनि वस्तुतः भिक्षा के अधिकारी हैं; वाकी के भिक्षा मांगनेवाले देश को वास्तविक में दरिद्र करनेवाले हैं। इसीलिये आजकल साधुओं पर लोग विशेष आक्षेप करते हैं; किन्तु खेद की बात है कि उनके साथ में शुद्ध-सच्चे साधुओं का भी तिरस्कार होता है। शास्त्रकारों ने साधु क सामायिकस्थ भी रागद्वेष के अभाव होने से ही कहा है; क्योंकि रागद्वेष के अभाव विना साधु में साधुधर्म ठीक नहीं माना जाता। तथा साधु को धर्मोपदेशक कहने से साधु में गुरुत्व ठीक २ सूचित होता है; क्योंकि धर्मोपदेश के विना पत्र पुष्प की तरह साधु समझा जाता है, जो स्वयं तरने पर भी दूसरे को नहीं तार सकता; किन्तु जो धर्म के उपदेश देने की शक्तिधारण करता है वह तो नौका के समान है, याने स्वयं पार जाता हुआ अन्य को भी लेजाता है। लेकिन कितने ही मुनि का नाम धारण करने पर भी मिथ्या आडम्बर बढ़ाकर पत्थर की नौका के समान स्वयं डूबते हुए दूसरों को भी डुवाते हैं । इसलिये वैसों का संग कल्याणाभिलाषी जीवों को कदापि नहीं करना चाहिये । सत्यसाधु के लक्षण श्रीभद्रबाहुस्वामी ने जो दिखलाये हैं उनको पाठक लोग नीचे नोट में देखें। - * ये ब्यचित्ता विषयादिभोगे वहिविरागा हृदि बद्धरागाः। ते दाभिका वेषभुतश्च धूर्ता मनांसिलोकस्य तु रञ्जयन्ति। ( हृदयप्रदीपपात्रंशिका ) x जह सम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । नं हणइ न हणावय सममणइ तेन सो अमणो ॥१५९॥
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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