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________________ (१५) राग द्वेपादि चार दोष जिसमें दिखाई पड़ते हैं वह किसी प्रकार सर्वज्ञ, वीतराग और सर्वदर्शी नहीं माना जा सकता। अतएव वीतराग कहने से रागद्वेष का अभाव, और सर्वज्ञ पद से अज्ञान का अभाव, तथा सर्वदर्शी शब्द से मिथ्यात्व दोष का अभाव मालूम किया जाता है, क्योंकि इस तरह हुए विना वे विशेषण अर्हन देव में सार्थक नहीं हो सकते । जहां रागद्वेषादि चारों दोष नहीं हैं वहां अन्तराय कर्म की स्थिति नहीं हो सकती है, फिर अन्तराय कर्म के अभाव होने से दान'शक्ति, लाभशक्ति, वीर्यशक्ति, भोगशक्ति और उपभोगशक्ति रूप गुणगण की प्राप्ति होती है। अर्थात् दानादि शक्तियां संपूर्णरूप से सर्वज्ञ में प्रकट होती हैं, किन्तु वे उनको उपयोग में नहीं लाते हैं, उसका कारण यह है कि उनको कुछ कर्तव्य बाकी नहीं रह जाता कि जिसके लिए वे उन्हें काम में लावें । और हास्यरूप दूषण भी भगवान् में नहीं होसकता; क्योंकि अपूर्व कुतूहल से ही हास्य उत्पन्न होता है, लेकिन सर्वज्ञ के ज्ञान में समस्त वस्तु के प्रत्यक्षगोचर होने से कुतूहल उत्पन्न होने का संभव ही नहीं है। इटपदाथ के ऊपर प्रेम होनाही रति कहलाती है, सब जहाँ राग का अभाव है वहाँ प्रेम ( रति ) का अभावही है । इसी रीति से अनिष्ट पदार्थ की 'प्राप्ति और इष्ट पदार्थ के अलाभही को अरति कहते हैं, परन्तु - जब सर्वज्ञ में रागद्वेषका ही अभाव है तव इष्ट अनिष्ट की बातही क्या है ? । इसी तरह समझने की बात है कि विना अज्ञान के भय कदापि उत्पन्न नहीं होता,
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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