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________________ '( १३.) शुभाशुभगति में, लोह को चुम्बक की तरह खीचने की शक्ति रखता है और उसमें दूसरे प्रेरक की वह अपेक्षा नहीं करता । यदि कोई यह कहे कि-चेतन का उपकार या अपकार जड़ कैसे कर सकता है ?; तो इसका उत्तर यह है कि जैसे सरस्वतीचूर्ण और मदिरादि यद्यपि जड़ हैं तो भी आत्मा के उपकारक और अनुपकारक प्रत्यक्ष सिद्ध हैं; उसी तरह कर्म जड़ होने पर भी आत्मा को मोहित करलेता है। इतनी प्रसङ्ग की बात कह करके अब मैं कर्मबन्ध' के कारण के विषय में विशेषरूप से विवेचना करने की इच्छा करता हूँ जैसे कोई पुरुष, स्वीपर प्रेम करने से अशुभगति का भागी होता है उसमें स्त्री की कोई शक्ति नहीं है कि वह अशुभगतिका भागी बनावे, परन्तु अशुभ अन्त:करण होने से ही उसको अशुभगति मिलती है, उसी तरह वीतराग की सेवा-पूजारूप आज्ञा की आराधना करने से शुभभावना होती है और वह शुभभावनाही शुभफल को देती है; क्योंकि लोक में भी देखा जाता है। कि-जैसा सङ्ग होता है वैसाही रङ्ग लगता है । और शास्त्रकारोंने भी ध्यान के विषय में लिखा है कि-वीतराग के ध्यान करने से जीव वीतराग-दशा को प्राप्त करता है, और सरागी का ध्यान करने से जीव सरगी होता है। इसलिए वीतराग की सेवा-पूजारूप आज्ञा की आराधना करनेवाला पुरुष अत्युत्तम फल को प्राप्त होता है और वीतराग पर द्वेष करनेवाला क्लिष्ट कर्मों का संचय करता है। अब रहा यह कि इस-जन्म-संबन्धी
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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