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________________ अर्हन देव के हजारों नाम हैं, जिनमें शङ्कर, शिव, महादेव, विश्वनाथ, हरि, ब्रह्मा, क्षीणाष्टकर्मा, परमेष्ठी, स्वयंभू, जिन, पारगत, त्रिकालवित्, अधीश्वर, शम्भू, भगवान्, जगत्प्रभु, तीर्थङ्कर, तीर्थकर, जिनेश्वर, स्याद्वादी, अभयद, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवली, पुरुषोत्तम, वीतराग आदि नाम गुणनिष्पन्न हैं। इनके अर्थाश में किसीको भी विवाद नहीं है, क्योंकि स्वाभाविक वस्तुमें भेद पड़ताही नहीं; और विना भेदक के भेद किसतरह । होसकता है ? देखिये, एकही जाति के पक्षी या एकही जाति के पशु की बोली किसी भी देश में भिन्न नहीं होती; क्योंकि उसका कोई भेदक नहीं है। अथवा मुह पर पांचों अगुली लगाने से खाने की, और पेट पर हाथ लगाने से क्षुधा की, तथा नाकपर एक अङ्गुली देने से चुपकराने की चेष्टा मालूम होती है और उस संकेत का सब देश में समानही अर्थ होता है, कुछ फेरफार विशेष नहीं मालूम होता; किन्तु मनुष्य की भाषा में जो फेरफार है उसके भेदक मनुष्य ही प्रत्यक्ष सिद्ध हैं । संस्कृत, प्राकृत तो अनादि भाषा है, यद्यपि उसमेंभी समय समय पर न्यूनाधिकभाव होता रहता है। किन्तु मूलभाषा यथावस्थितही रहती है। और जो दर्शनों की भिन्नता दिखाई पड़ती है, वह भी भिन्न २ सर्वज्ञ मानने से ही है। अगर सर्वज्ञ की सिद्धि एकही तरह की मानी जाय, तो फिर कुछभी भिन्नता नरहेगी, लेकिन ऐसा न कभी हुआ और न होगा। हाँ! इतना अवश्य कह सकते हैं कि दर्शन भिन्न २ भलेही रहें, किन्तु आपस में वैर विरोध न करके जिस वस्तु में समानता
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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