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________________ जैनेन्द्र का पूर्णतया अपना है जो सामाजिक संस्कारों की विवशता की अपेक्षा कहीं अधिक तर्कसंगत और समीचीन जान पड़ता है। उपन्यास का यह भाग इतना अधिक प्रभावशाली बन गया है कि उसके आगे की कथा व्यर्थ तथा सिद्धान्तवादिता के लिए कृत्रिम तरीके से जोडी हुई लगती है। उपन्यास का अंत वस्तुतः यही हो जाना चाहिए था, तब कट्टो की वैधव्य की समस्या मनोवैज्ञानिक धरातल पर एक प्रमुख विचारणीय प्रश्न बनकर अपना महत्व स्थापित कर लेती, लेकिन बिहारी जैसे रहस्यमयी पात्र की सृष्टि और कट्टो बिहारी के सम्बन्ध में रहस्यमयी विवाह तथा वैधव्य की प्रतिज्ञा की अबूझ पहेली ने वैधव्य की समस्या की यथार्थता तथा उसके वास्तविक रूप को बहुत कुछ धुंधला कर दिया है। एक विचित्र संयोग ही है कि 'परख' की कथा प्रारम्भ तो होती है, कट्टो के सामाजिक मान्यताओं के विद्रोह से, लेकिन उसका अंत होता है-वैधव्य सम्बन्धी लेखकीय आध्यात्मिक किंवा दार्शनिक व्याख्या से। कट्टों अपने वैधव्य तथा विवाह दोनों की प्रतिज्ञा को स्पष्ट करते हुए कहती है-'हम दोनों वैधव्य यज्ञ की प्रतिज्ञा में दूसरे का हाथ लेकर आजन्म बंधते हैं। हम एक होंगे एक प्राण, दो तन। कोई हमें जुदा न कर सकेगा।' कट्टो ने कहा। हम दोनों वैधव्य यज्ञ की प्रतिज्ञा में एक दूसरे का हाथ लेकर आजन्म बंधते हैं। हम एक होंगे एक प्राण, दो तन। कोई हमें जुदा न कर सकेगा। बिहारी ने दोहरा दिया। कट्टो ने कहा आज मेरा विवाह पूर्ण हुआ, वैधव्य सार्थक हुआ। जैनेन्द्र इस समस्या के सन्दर्भ में अपने युगीन विचार दर्शनों से अलग हैं। गाँधी जी ने बाल-विधवा की समस्या पर अपना विचार व्यक्त किया था-'उनका विवाह कुंवारी लड़कियों की भांति होना 41 जैनेन्द्र कुमार परख' पृष्ठ-75-76 [67]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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