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________________ व्यवस्था नहीं मानता। इस सन्दर्भ में डॉ० कुसुम कक्कड़ के विचार द्रष्टव्य हैं, “जैनेन्द्र विवाह के सम्बन्ध में पुरूषार्थ से अधिक भाग्य को महत्व देते है । भाग्य के निर्णय पर व्यक्ति सन्तुष्ट रहता है। उसमें द्वन्द्व या आग्रह की स्थिति नहीं उत्पन्न हो सकती । पुरूषार्थ में व्यक्ति का अहं प्रबल रहता है और दोनों ओर से आग्रह होने के कारण जीवन तनावपूर्ण तथा असंतोष की स्थिति से गुजरता है। जैनेन्द्र विवाह के हेतु स्वयं वर के चुनाव को उचित नहीं मानते। वे विवाह में धार्मिक वृद्धि को आवश्यक समझते हैं। • इस प्रकार जैनेन्द्र के कथा साहित्य में प्रेम-विवाह को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया गया है। उनके कथा साहित्य में प्रेम-सम्बन्ध अधिकतर विवाह के बाद ही दिखाई देते हैं, 'विवर्त' में विवाह के पूर्व ही प्रेम सम्बन्ध की कल्पना की गयी है। किन्तु प्रेम-विवाह सम्भव नहीं हो सका है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम जीवन का अनिवार्य अंग है । प्रेम के बिना जीवन जडवत हो जाता है, किन्तु प्रेम विवाह द्वारा प्रेम में उत्सर्ग के स्थान पर दायित्व का भाव बढ़ जाता है, व्यवस्थित विवाह के पश्चात् प्रेम स्थायी है। वस्तुतः जैनेन्द्र ने प्रेम के स्थायित्व के हेतु प्रेम-विवाह का निषेध किया है । 'त्यागपत्र' में मृणाल का प्रेम-विवाह सम्भव नहीं हो सका है । मृणाल सामाजिक मर्यादा को स्थायी रखते हुए भी अपने अन्तस् के प्रेम को विनष्ट नहीं होने देती। उसके हृदय में अपने प्रेमी पात्र के प्रति घृणा की भावना जाग्रत नहीं होती। जैनेन्द्र के पात्र आजीवन भाग्य के थपेड़े खाते हुए भी विवाह के दायित्व को सामाजिक मर्यादा के अन्तर्गत ही स्वीकार करते हैं। वैवाहिक जीवन चाहे कितना ही कष्टमय क्यों न हो जाये, किन्तु वे अपने आदर्श से विचलित नहीं होते । 'त्रिवेणी' में प्रेम-विवाह 25 जैनेन्द्र कुमार - प्रश्न और प्रश्न, पृष्ठ-168-169 26 डॉ० कुसुम कक्कड़ - जैनेन्द्र का जीवन दर्शन, पृष्ठ- 191 [50]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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