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________________ माध्यम से कोई ब्रह्मचारी पापमुक्त नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य निषेधात्मक तत्व नहीं है और न पलायन की स्थिति ही है, स्नेह, प्रेम और सेवा ही ब्रह्मचारी का धर्म है। जैनेन्द्र की प्रतिक्रिया स्पष्ट है'अपने को न सहारा पाने के कारण प्राणी भोग में प्रवृत्त होता है। पूर्णकाम प्राणी निष्काम होता है। निष्कामता निषेधक स्थिति नहीं, वह तो परिपूर्ण मनोदशा है। इसी तरह ब्रह्मचर्य भी निषेधक भाव नही है, वह तो पूर्णता का साधक भाव ही है। अवतारी मनुष्य भी तो अकेले अवतारी नहीं बन गये थे, वे सबके बीच और सबके साथ रहे। वहीं उन्होंने महाप्रेम की व्यथा को सँभाला। ब्रह्मचारी साधारण समाज को घृणा नहीं बल्कि प्रेम और करुणा से देखेगा। अनुकम्पा सच्चे बह्मचारी का लक्षण है। ब्रह्मचारी अहं का केन्द्र है अकथनीय सेवा करना ब्रह्मचारी का स्वभाव समझना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनेन्द्र ब्रह्मचर्य को एक ऐसी साधना मानते हैं, जिसमें मनुष्य अपने को समाहित कर दे। 'अनामस्वामी' का पात्र-चित्रण इसी ब्रह्मचर्य दृष्टि को साकार करता है। ब्रह्मचर्य में मनुष्य बिखराव से अलग होकर आत्म-संयम की ओर प्रवृत्त होता हैं, किन्तु यह प्रवृत्ति किसी हठ या संयम का योग न होकर निजता के विकास का विशाल रूप है। अंग्रेजी में जिसे 'इंटीग्रेसन आफ पर्सनालिटी' '(Intigration of Personaltiy)' कहें, ब्रह्मचर्य वही योग है। अपने इन्द्रिय, मन, प्राण को ब्रह्मनिष्ठा में पिरोकर रखना है। व्यक्ति समष्टि भाव से शून्यवत न होता दिखे, वह निरी अपनी ईकाई में ही बसता जाए, तो वहाँ ब्रह्मचर्य असिद्ध मानना चाहिए। व्रत तो समष्टि भाव ही है, उसकी चर्चा व्यक्ति को छोटा नहीं, बल्कि विशाल ही कर सकती है। 12 जैनेन्द्र कुमार - अनामस्वामी, पृष्ठ-42 13. वही, पृष्ठ-43 [40]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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