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________________ उखाडकर रख दिया है, किन्तु कठोर यथार्थ और शुष्क वस्तु स्थिति में उनकी भी गति नहीं हो पाती। व्यक्ति समाज में रहकर ही अपने व्यक्तित्व का विकास करता है तथा समाज ही उसे प्रतिष्ठा और सम्मान प्रदान करता है। यदि समाज न हो तो मनुष्य का व्यक्तित्व अपने आप में शून्य हो जाता है। डॉ० कुसुम कक्कड़ के विचार द्रष्टव्य है-'जैनेन्द्र ने सामाजिक व्यवस्था को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है।" जैनेन्द्र अपने कथा साहित्य में पात्रों की प्रत्येक सुखद अथवा दुःखद मानसिक स्थिति का निष्पक्ष चित्रण करते हुए उसके साथ सहानुभूति मिश्रित करुण व्यवहार करके जीवन की एक-एक गॉठ खोलने में सहायक होते हैं। सेक्स पर दिया हुआ कवर अनेक प्रकार कुण्ठाओं को जन्म दे सकता है, जैनेन्द्र उस कवर को ही हटाकर बात नहीं करते, बल्कि उस कवर से उत्पन्न असाधारणता को नार्मल्सी की ओर ढकेलने में सहयोग देते हैं। जैनेन्द्र की कृतियाँ उनके उदात्त क्षणों की देन हैं। वह प्राचीन कथाकार की तरह घटनाओं का संकलन और उनकी सूत्रबद्धता में विश्वास नहीं रखते। स्वयं 'सुनीता' में उन्होंने स्वीकार किया है कि कहानी कहना उनका उद्देश्य नहीं था। चिन्तक होने के नाते एक विचार व्यक्ति जीवन की एक समस्या का अभाव, समाधान तथा मानसिक द्वन्द्व प्रस्तुत करना ही निरन्तर उनका लक्ष्य रहा है। उनके लगभग सभी मौलिक उपन्यासों में कथानक की अपेक्षा व्यक्ति और उसकी अन्तर्मुखी समस्या प्रधान है। यही कारण है कि वे कथानक को कहीं भी निश्चित रूपाकार नहीं दे पाये। कथा की उपेक्षा की घोषणा तो उन्होनें 'सुनीता' में ही कर दी थी; किन्तु 'कल्याणी', 'त्यागपत्र' आदि के गठन में वह घोषणा अपनी पराकाष्ठा को छू गयी है। इनके कथा साहित्य में पाठक को प्रारम्भ में ऊल-जुलूल कथनों के अतिरिक्त कुछ नहीं प्राप्त होता है, 6 7 डॉ. मनमोहन सहगल - उपन्यासकार जैनेन्द्र : मूल्यांकन और मूल्याकन, पृष्ठ-11 डॉ० कुसुम कक्कड - जैनेन्द्र का जीवन दर्शन, पृष्ठ-181 [33]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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