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________________ युग चेतना को हम अवधि की सीमा, विशेष की सीमा और जगह की सीमा से बाँध नहीं सकते, बल्कि इसमें लगातार परिवर्तन होता रहता है। समाज, संस्कृति, राजनीति, धर्म, दर्शन, अध्यात्म तथा विज्ञान आदि का स्वरुप जिस युग में जैसा रहता है, उसे ठीक उसी रुप में ग्रहण कर अभिव्यक्ति करना कथाकार के साहित्य की युग चेतना कही जाती है। डॉ० पन्ना द्विवेदी के शब्दों में 'युग भावनाओं की अभिव्यंजना साहित्य में युग चेतना की संज्ञा पाती है। 'युग चेतना' युग के शुभ, सत्य तथा तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक प्रवृत्तियों की जानने की क्षमता है, जो इससे अवगत कराती है कि उचित क्या है और अनुचित क्या है। साधारण व्यक्ति परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता, न प्रभाव ही ग्रहण कर पाता है, परन्तु साहित्यकार युगीन परिस्थितियों से प्रभावित हो अपनी साहित्यिक चेतना के माध्यम से उस युग को अपने कथा साहित्य में व्यक्त कर देता है। चेतना स्वयं में एक स्वतन्त्र अस्तित्व का अनुभव करती है। मनोविज्ञान के अनुसार-चेतना मनुष्य में उपस्थित वह महत्वपूर्ण तत्व है, जिसके कारण उसे विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ प्राप्त होती हैं। इस तत्व के बिना मनुष्य संवेगहीन हो जाता है और वह जीवन की अनुभूतियों से वंचित भी हो जाता है। अनुभूतियों के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं। वह पशु की भाँति हो जाता है। इसे अनुभव कहा जाता है। यह एक आन्तरिक क्रिया होती है। जो बाह्य परिणामों की प्रतिक्रिया स्वरुप उत्पन्न होती है। 3 डॉ० पन्ना द्विवेदी - दिनकर के काव्य में युगीन चेतना, पृष्ठ -3 [3]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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