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________________ जैनेन्द्र की भाषा सरल वक्रता सिद्ध है। सरल, छोटे-छोटे वाक्यों में वह गहरी बात कह जाते हैं। भाषा पाठक को मूक रूप से अनेक सुझाव देती है। एक विशिष्ट दिन के पश्चात् मृणाल प्रमोद से स्वयं को बुआ कहने को मना करते हुए कहती है-'मैं बुआ हूँ। बुआ मुझे अच्छा नहीं लगता। प्रमोद तू मुझे जीजी कहा कर जीजी। शीला मुझे जीजी कहती है..........मैं नहीं बुआ होना चाहती। बुआ छीः ! देख चिड़िया कितनी ऊँची उड़ जाती है मैं चिड़िया होना चाहती हूँ 130 जैनेन्द्र की भाषा बड़ी सरल, सीधी-सादी है। यद्यपि उनमें चिन्तन का भार वहन करने की अनुपम शक्ति है। जैनेन्द्र ने भाषा को कठिन नहीं होने दिया है। वक्ता बात को कहकर पुनः उसे संशोधित करता है, जैसा हम प्रायः दैनिक जीवन में करते हैं। कल्याणी की कहानी कहते हए वकील साहब कहते है-'हाल की तो बात है। ऐसा लगता है जैसे कल की हो......न सही कल की पर दो ढाई बरस से अधिक नहीं हुए 131 गहन से गहन चिन्तन में भी भाषा सरल, अक्लिष्ट, सुगम रही-यहाँ किसी को यह कहने का लोभ नहीं है कि वह सच्चरित्र है। यहाँ सच्चरित्र के अर्थ में मानव का मूल्य नहीं माना जाता। दुर्जनता मानो कीमती है। यहाँ उसी हिसाब से मानव की घट-बढ़ की है। कलई वाला सदाचार यहाँ खुलकर उधड़ रहता है। यहाँ खरा कंचन ही टिक सकता है.......कंचन की माँग नहीं है। पीतल से परहेजी नहीं है।132 वाक्य रचना वाक्य रचना का शैली से घनिष्ट सम्बन्ध होता है। वे प्रायः सरल वाक्यों का प्रयोग करते हैं क्योंकि उनका शिल्प सूक्ष्म आन्तरिक 130 जनेन्द्र कुमार - त्यागपत्र, पृष्ठ - 15 131 जनन्द्र कुमार – कल्याणी, पृष्ठ - 3 132 जनेन्द्र कुमार - त्यागपत्र, पृष्ठ - 93 [203]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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