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________________ 'सागर का तट था। संन्ध्या डूब चली थी । तट सूना था । लहरों 110 पर लहरें लेकर सागर आता और पछाड खाकर पीछे लौट जाता। मैं बराबर में साथ 100 ..* उधर समुद्र में लहरों का उद्वेलन है, उधर जय और इला भावार्द्र होकर एक दूसरे को पाना चाहते हैं । जय पुकारता है - इला! और इला महसूस करती है- 'मेरे समूचेपन में से बोल उठा-लो, लो, लो मुझे लो.. * कहीं-कहीं वातावरण का सम्बन्ध पात्र की आन्तरिक मनोदशा से भी सम्बद्ध है। एक ओर चिन्तन-मग्न पात्र है और दूसरी ओर प्रकृति का फैला आँचल । ऐसे प्रसंगों में प्रायः प्रकृति के दूरस्थ चित्रण को लिया गया है, जिसकी पात्र की मनः स्थिति से संगति बैठ जाती है। सुखदा अतीत के गर्भ से निकलकर अपनी कहानी पाठकों को सुनाना अभी आरम्भ ही करती है कि उसका मन कैसा होने लगता है। उसकी दृष्टि दूर फैलाव विस्तार को देखती - देखती एक प्राकृतिक चित्र बना देती है जहाँ धरती ढल गई है, पार मैदान बिछा है..... .. पूरी सी मकानों की बिन्दिया-हरियाली इकट्ठी हो गयी है..........रंग मटमैला.... ..रंग मटमैला .........एक-दो पतली सफेद लकीर जो नदियों के निशान.... .. धुँधली रेखा से सिमट कर समाप्त हो जाता है। वही हमारा क्षितिज है | " प्रकृति के आश्रय बिना भी कलाकार ऐसे वातावरण का निर्माण करने में सक्षम है जिसमें पात्रों की खिन्नता, दुःख, पीड़ा जैसे भाव व्यक्त हो जाते हैं । 'परख' में ऐसे छोटे-छोटे चित्र पर्याप्त संख्या में हैं। कट्टो, सत्यधन तथा बिहारी के वार्तालाप में जब-जब नीरवता आ जाती है, कथाकार भी तदनुसार वातावरण का चित्रण कर देता है । ऐसी स्थिति का वातावरण द्रष्टव्य है 109. जैनेन्द्र कुमार - जयवर्धन, पृष्ठ 110 जैनेन्द्र कुमार - जयवर्धन, पृष्ठ 111 जेनेन्द्र कुमार - सुखदा. पृष्ठ - 4 - 128 128 [195]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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