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________________ व्यक्ति को व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख करती है तथा व्यक्ति स्वार्थ को भूलकर परमार्थ हेतु अपना जीवन अर्पित करता है। उनकी दृष्टि में मनुष्य का कर्मशील होना ही आवश्यक बात नहीं है, कर्मशीलता के साथ ही उसमें कर्म के प्रति अनासक्ति होना भी आवश्यक है। 'जयवर्धन' में जैनेन्द्र ने एक स्थान पर 'अकर्म' की आवश्यकता पर अपना दृष्टिकोण बताया है- 'कर्म ठीक है, किन्तु वह अकर्म के साथ ही ठीक है, नहीं तो बचाव और भरमाव होगा। 26 पुनर्जन्म, मृत्यु और अमरत्व जैनेन्द्र पुनर्जन्म को भी अपने कथा साहित्य में स्वीकार करते हैं। वे यह स्वीकार करते है कि मनुष्य मृत्यु के बाद नवीन जन्म को प्राप्त करता है। जैनेन्द्र ने 'कल्याणी', 'रूकिया बुढ़िया' तथा 'मौत की कहानी' आदि में जगह-जगह पुनर्जन्म का उल्लेख किया है। वे कर्म की सापेक्षता से पुनर्जन्म को मानते हैं। इनके अनुसार जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म- यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। संसार कर्म और भाग्य की आस्था पर चलता है। जीवन में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा पुनर्जन्म के संचित कर्मों अर्थात् भाग्य के द्वारा ही उपलब्ध होती है। ___ जैनेन्द्र के पुनर्जन्म सम्बन्धी विचार मौलिक प्रतीत होते हैं। 'सुखदा' उपन्यास में जैनेन्द्र ने लिखा है कि 'मरने के पहले जो होता है उसे जीना कहते हैं। x x x x x हम तुम नहीं जीते, जीता खुद जीवन है, वह इतिहास में जीता है । वह मेरा तुम्हारा नहीं है, मुझसे तुमसे नहीं है, बल्कि हम उससे हैं। वह है, हम नहीं हैं। उनके अनुसार व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। वह यह 26 जैनेन्द्र कुमार - जयवर्धन, पृष्ठ - 12 27. जैनेन्द्र कुमार - सुखदा, पृष्ठ -171 [135]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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