SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुसार जिस प्रकार शरीर के स्वास्थ्य के हेतु रक्त का समुचित प्रवाह अनिवार्य है, उसी प्रकार समाजरूपी शरीर के स्वास्थ्य के हेतु धन का समुचित वितरण आवश्यक है। सरकारी मोहर लगने पर ही पूँजी की सार्थकता निर्भर करती है, अन्यथा वह स्वयं में जड़ है। जैनेन्द्र ने अपनी कृतियों में 'सरकारी मोहर' शब्द का बार-बार प्रयोग किया है। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि धन के सरकारी संरक्षण को वे उचित नहीं मानते। 'विवर्त' 'सुखदा', सुनीता', 'जयवर्धन' में पूँजीपतियों की कटु आलोचना की है।" उनके अनुसार पूँजी स्वय में दोष नहीं है, किन्तु उसकी वृद्धिकारक प्रवृत्ति समाज के अन्दर व्याप्त है । पूँजीपतियों की दृष्टि में स्वार्थ की भावना बहुत अधिक होती I प्रतिष्ठा के सम्मुख देश का हित भी उनकी दृष्टि में गौण होता है । जैनेन्द्र ने भौतिकता के रंग में रंगे हुए अर्थ वृद्धि के लिए सचेष्ट रहने वाले समाज का चित्रण करते हुए स्पष्ट किया है कि ऐसे मनुष्यों को श्रम भी नहीं करना पड़ता और पूँजी बढ़ती जाती है। सामाजिक संस्थाओं को दान स्वरूप कुछ सम्पत्ति देकर वे प्रेम को बहुत प्रतिष्ठित समझने लगते हैं। 'अनन्तर' में आदित्य ऐसा ही व्यक्ति है जिसका लक्ष्य जीवन स्तर को बढ़ाना है। धर्म, नैतिकता, परमार्थ आदि भावनाएँ उसकी दृष्टि में निरर्थक हैं। 'विवर्त' में जैनेन्द्र जी ने ऐसे ही परिवार का चित्रण किया है जहाँ सारा समय सुख भोग में व्ययतीत होता है । उनके जीवन में अभाव नाम की कोई वस्तु ही नहीं होती। वे अपने सुखमय जीवन में कभी अपनों से नीचे देखने का कष्ट नहीं करते । जैनेन्द्र जी ने इस प्रकार के व्यक्तियों पर गहरा व्यंग्य किया है। एक तरफ आवश्यकता से अधिक धन होने के कारण जीवन क्रीड़ा बन जाता है। दूसरी तरफ थोड़े धन के लिए बेटी बेची जाती है। समाज में यह भेद धन के 65 वही, पृष्ठ 143 [119]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy