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________________ 'मुक्तिबोध' आदि उपन्यासों में जैनेन्द्र ने अर्थ में डूबे व्यक्तियों का चित्रण किया है। 'अनन्तर' में जया अति मौलिकता से परेशान होकर 'शान्तिधाम' की स्थापना करती है। उसके अनुसार जीवन भोगाभिमुख होता जा रहा है उसने संकल्प बाँधा है कि इस गिराव को रोकना होगा। जीवन को उसकी सही धुरी पर फिर से निष्ठ और प्रतिष्ठ करना होगा। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य धर्म वही है जिसमें अन्तश्चेतना और आन्तरिकता बढ़ती हुई महसूस हो। जिसमें चित्त सिकुडता, सिमटता हो वही अधर्म है। धर्म का भाव आत्मा के साथ ही पनपता है। अतएव जैनेन्द्र के विचारानुसार जीवन में जिन कामों से आनन्द और सुख की अनुभूति होती है वही धर्म के नाम से पुकारा जाता है। धर्म का मूल परहित में घुल मिल जाना चाहिए। जैनेन्द्र की दृष्टि में मोक्ष मनुष्य के जीवन में धर्म का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति करना है। धर्म जीवन का केन्द्र है, आधार है, जिस पर मनुष्य जीवन यात्रा का प्रारम्भ और अन्त करता है। मोक्ष की प्राप्ति ही उसका उद्देश्य है। मोक्ष मनुष्य के जीवन की अन्तिम पहुँच है। जहां पर मनुष्य जाकर शीघ्र ही सारे कर्म-बन्धनों से अलग हो जाता है। जैनेन्द्र ने जीवन की यायार्थता से विमुख होकर किन्हीं सिद्धान्तों की स्थापना नहीं की है। जैनेन्द्र मोक्ष को ठिकाना न मानकर यात्रा के रूप में मानते हैं। यात्रा का सुख तभी तक होता है जब तक कहीं ठिकाने का पता न हो। ठिकाने को जानकर चलने में यात्रा ठिकाने तक ही समाप्त हो जाती है। जैनेन्द्र ने 'समय और हम', 'प्रश्न और प्रश्न' में इन्हीं विचारों को स्पष्ट किया है। जैनेन्द्र का विचार है कि सफर जिसका काम है 53 वही, पृष्ठ -56 54 जैनेन्द्र कुमार - समय, समस्या और सिद्धान्त, पृष्ठ-131 [112]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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