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________________ ८४ जैनेन्द्र की कहानियां [सातवां भाग] सम्भावनाओं पर जाकर फिरने का अवकाश मेरे विचार को नहीं मिला। बस, इसी एक प्रश्न को केन्द्र बनाकर मेरी समग्र मानवीय चेतनता उसके चारों ओर, सुलझाने के यत्न में परिक्रमा करती हुई घूमने लगी, कि किस प्रकार अपनी बिदा को सुन्दर बनाकर यहाँ से अपने को मैं मुक्त करूँ। सोचा-क्या यह नहीं हो सकता, कि यह सब आपसी वैर-भाव को मेरी लाश के ऊपर मिलकर आँखों की राह बहा दें और परमात्मा के दो सगे पुत्रों की भाँति हिल-मिलकर रहें। मुझे मरते हुए की तरफ देखकर क्या यह लोग मेरी अन्तिम अभिलाषा को मान लेने के लिए विवश नहीं हो जाएँगे ? मरते-मरते मैं अगर एक के हाथों को दूसरे के हाथों में देकर दोनों के आँसू अपने ऊपर ढलवा सका, तो मैं फिर बड़ी सुख-शान्ति के साथ आँख मीच लूंगा। मृत्यु फिर मेरे लिए बड़ी सुन्दर हो जायगी। समझूगा, जीवन इस मौत में आकर सार्थक हो गया। उस सुखद दृश्य को उत्पन्न करके फिर उसे इस धरती पर अपने पीछे चिरन्तन-रूप में जीवित रहने के लिए आँख मींचकर, चुपचाप चल देने के लिए मुझे क्या दर्द शेष रह जायगा। मैं फिर मानों अमर होकर अपने सृष्ट किये हुए इसी स्वर्ग-दृश्य के लोक में रहने के लिए चला जाऊँगा। ____ मन की वैसी विमल शान्ति और स्थिरता ( Equipoise ) उसके पहले और उसके बाद मैंने फिर कभी अनुभव नहीं की। लेकिन बदन मानों ऐंठ रहा था । ऐसी कुछ मिचलाहट जी में मच रही थी, कि जैसे अंतड़ियाँ भीतर से उबक कर. बाहर होकर, एक-एक बिखर जोना चाहती हैं। एक आदमी उधर से जा रहा था। सहसा मुझे वहाँ पड़ा देखकर मेरे पास आया और विस्मित प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखने लगा। बहुत साहस करके उसने पूछा, "क्या हुआ ?" _मैंने जैसे-तैसे, संकेत से कुछ बोलकर उसे यह समझा दिया कि चाचा को तुरन्त यहाँ आना चाहिए।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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