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________________ मौत की कहानी इस परसादी नामक कुलक्षरण व्यक्ति को क्यों एकाएक मेरे श्रातिथ्य के प्रति साग्रह हो उठना चाहिए, यह उस समय मेरे लिये बड़ी दुर्भावनाओं का विषय बन गया । कुछ देर बाद मैंने समझा कि मैंने इसका भेद समझ लिया । १ ८१ इस सफेद पिरामिड के भीतर दबे हु दही-सागर से, इतने लोगों के बीच में बैठकर, मैं क्या करके अपना पिंड छुड़ाऊँ । इसको सोचकर कुछ निश्चय करूँ कि एक नाम पिघले- सीसे की तरह कान में सनसनाता चला गया । किसी ने कहा, "चाचा डालचन्द, बाबूजी को दही दिया है, एक कचौरी तो और दे जाना ।" मैंने एकदम प्राँ ऊपर उठाकर देखा । डालचन्द ताजा कचौरियों का डल्ला लेकर हँसता हुआ मेरे सामने आया । गोरा-भरा चेहरा था, मजबूत हाथ-पाँव थे । बिलकुल गँवार नहीं मालूम होता था । श्राँखें हँस रही थीं, जाने क्यों हँस रही थीं । आकर बोला, "लो बाबूजी, एक कचौरी तो मेरे हाथ की भी लो ।” हाय राम, यह क्या हो रहा है ! मैं कुछ बोल नहीं सका, हाथ पत्तल के ऊपर करके फैला दिये । 'बाबूजी, यह बात नहीं होगी' — उसने कहा, “एक तो लेनी ही पड़ेगी ।" और यह कहकर बड़ी तरकीब से एक कचौरी उसने मेरी पत्तल के बीचों-बीच डाल ही दी । अब मैं उस कचौरी को लेकर क्या करूँ ? उसे उसी डालचन्द के, वेहयाई से हँसते, चेहरे पर फेंककर मार सकूं, तो ठीक हो जाय; लेकिन इतने बड़े जन-समुदाय से घिर कर - जो अब बड़े सम्मान और आग्रह के साथ मुझ शहरी सभ्य को ही देख रहा था - यह मुझ से किसी तरह भी नहीं बन सका । और में चुपचाप उस कचौरी को एक हाथ से चूर-चूर करके, उसकी एकाध किनकी को बूरे के ढेर से छुना कर मुँह चलाचलाकर खाने का दिखावा करने लगा ।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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