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________________ ' मौत की कहानी ७६ मुझ पर ही न हाथ साफ कर बैठे । माधो के देने न ऊधो के लेने में रहनेवाले, एक हँसमुख, मिठबोल, निरीह प्रारणी को जब यह डालचन्द अपने साथियों को लेकर लाठियों से कुचल-कुचलकर मार सका, तो उसके हाथ से और भी कुछ क्यों नहीं वैसा ही आसानी से हो सकेगा, यह मेरे मन में नहीं बैठता था। मैंने गांव के पास के बाग के किनारे की जामुन के पेड़ों और कुछ झाड़ियों से ढकी हुई वह तिमिराच्छन्न जगह कई बार देखी और उसके साथ मिलान करके हर-हर बार उस डालचन्द की काली घनी भयंकरता भी अपने मन से साकार बनाकर देख ली। साथ ही कभी-कभी मैं यह सोचता था कि यदि एक ओर से विश्वास और सचाई के साथ मैत्री का हाथ बढ़ाया जाय, तो क्या वह दूसरी ओर की बर्बरता उतनी ही क्रूर बनी रहेगी ? क्या वह कुछ कम कठिन न होगी ? और क्या यह अच्छा न होगा ? गाँव में रहते-रहते मुझे पन्द्रह-बीस दिन हो गये। जिन्दगी में इतने दिनों में कोई नई बात ही सामने नहीं आई, जिसमें स्वाद मालूम होता। जैसा आज का दिन, वैसा ही कल का दिन, ठीक बिलकुल वैसे ही और सब दिन । मन लगाने को और बहलाने को यहाँ अदल-बदल कोई ज़रा भी नहीं मिली। एक-सा सपाट जीवन, कोई चढ़ाव-उतार नहीं।-मेरा इससे जी भर गया। जिसे मै भूख समझता था, वह शायद भूख नहीं होगी। क्योंकि गाँव का स्वाद चखने-चखने में ही मैं तो अघा उठा था, अच्छी तरह चबाकर उसे भीतर डालने का अवसर भी नहीं आने दिया। भूख होती, तो बिना इतना किये मिटती ? __ खैर, तो मुझे उस समय बड़ा आराम मिला जब चाचा ने कहा, "चलो, आज एक दावत खाने चलना है।" मैंने कहा, "कहाँ चलना है ?"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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