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________________ सोद्देश्य ५ १ कोशिश करता है । भावना की उत्कटता को मन्द करके मानो हमें सुलाना चाहता हैं । हम को जागना होगा और साहित्य से सबको जगाना होगा । इस जकड़ को तोड़ना और क्रान्तिको सिद्ध करना है, वीणा । जो दीन हैं, वे दीन नहीं रहेंगे और जिनके हाथ में श्रम है, वे ही विधाता होंगे। परसों की तुम्हारी कविता ठीक थी। मैंने वह साथी उमेश को दे दी है । उसका ख्याल है कि वह अच्छा 'मार्च -सौंग' बन सकती है । लेकिन कल भी तो कुछ लिखा होगा, दिखाओ न ?” "नहीं, कुछ नहीं लिखा ।" "नहीं बीरगा, लिखा है और यह भी कह सकता हूँ कि अच्छा लिखा है। तुम जो लिखोगी, अच्छा लिखोगी ।” वीणा कुछ कहे कि माँ की गूँजती हुई आवाज सुनाई दी, “वीणा !" वीणा को इस बात पर झल्लाहट है । यह बैठक, मकान के बाहरी हिस्से में है । साथी कोई मिलने आए तो अन्दर विघ्न उपस्थित नहीं होता । पर बैठक में बातचीत का स्वर चढ़ जाये तो भीतर सूचना हो ही जाती है । ऐसे समय माँ भी पुकारने से चूकती नहीं देखी जातीं । वीणा कुछ पुराने ढंग की होने पर भी यह सोचे बिना नहीं रहती कि मैं वीणा हूँ, पदार्थ नहीं हूँ । कीमती चीज को चौकसी की जरूरत हो, मैं अपना भला-बुरा जानती हूँ । भल्लाई हुई बोली, 'क्या है, माँ?" "क्या-क्या है ?" कहती हुई माँ उसी कमरे में आई और बोलीं, " इतनी देर से बातें कर रही है । यह नहीं कि माँ चूल्हे में होगी, सो देख लू, कुछ काम तो नहीं है !" किशोर ने कहा, "नमस्ते, माताजी !" "नमस्ते, तू कहती थी, रायता में बनाऊँगी । चल, देख न ?" "चलो, अभी प्राई "
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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