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________________ ४६ सोद्देश्य को तोड़ना नहीं है । कान्ति को देखिए कि दूसरा संग्रह निकलने वाला है । वह क्या तुम से ज्यादा जानती है ? कल की तो बात है कि मुझसे सीखती थी । " वीणा को अपने कवि होने के सम्बन्ध में कोई अन्तरध्वनि नहीं मिली। फिर भी इच्छा थी कि पत्र-पत्रिकाओं में कुछ छपे, जिसके ऊपर उसका नाम हो । जान-पहचान की कई और लिखती हैं । देखा - देखी कुछ लिखा तो साथी ब्रजकिशोर ने बताया कि वह प्रतिभाशाली है । इस प्रतिभा के कारण इधर पन्द्रह-बीस दिन से हर रोज उसे एकएक कविता लिखनी पड़ती है और साथी किशोर को उसे सिखाना और छपाना पड़ता है । साथी शब्द, हृदय की दृष्टि से—यों किशोर एम० ए० के आखिरी साल में, और वीणा बी० ए० को परीक्षा देगी। पर श्रेणी का ही साथ सब-कुछ नहीं होता । हृदय श्रेणियाँ नहीं गिनता । फिर किशोर प्रकृति से साथी है, मानव जाति के हर सदस्य के प्रति वह साथी होने में विश्वास रखता है। गरीबों का, दलितों का साथी है तो फिर वीरणा के साथी होने में उसे क्या दिक्कत है ! वीरगा गरीब नहीं है, और दलित नहीं है । अमीर है और लाड़ली है । इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है । यों पूछिए तो शिक्षा, सौन्दर्य और आभिजात्य वीरणा के पक्ष में बाधाएँ हैं, पर किशोर सहिष्णु है और इतर विश्व की भाँति इस एक वीणा का भी साथी है । कहा, “लाम्रो लाओ, दिखाओ ।" वीणा की कि का कारण था - सावन के दिन चल रहे हैं । कल कुछ फुहार थी । हलकी-मीठी धूप भी थी। ऐसे समय आकाश में इन्द्रधनुष दीख श्राया । छत पर खड़ी होकर वह उसे निहारती रही। देखती है कि धनुष तो दो हैं । प्रकृति नहा उठी है । सब कुछ सलोना है । फिर उस समय जाने कैसा मालूम हुआ ! वह अकेली थी पर अकेलेपन में भी मानो भीतर से भर आई । हिंडोले में भूलती भूलती कुछ गुनगुनाने
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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