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________________ है वह चेहरा २११ वर्ष की अवस्था में भी मैं अनुभव कर सका कि मैं तो नितान्त नगण्य उपलक्ष हैं। इस निरपेक्ष और म्लान-मन्द स्मिति का अर्घ्य तो इस दिग्दिगन्त व्यापी शून्य को समर्पित किया जा रहा है जो सबको लील जाता है और हम जैसे प्राणियों के सुख अथवा दुःख के प्रति एक साथ आ सकता है। __ मालूम हुआ चीख बढ़ती जा रही है और पास आती जा रही है"मो जग्गो...कम्बख्त...कलमुही..." मैं घबरा रहा हूँ; लेकिन चेहरा मेरी ओर हँस रहा है । धमाके के साथ एक स्थूल-काया प्रौढ़ा छत पर प्राविर्भूत हुई। जान पड़ा चेहरे को कोई अधीरता नहीं हुई। उसकी मुस्कराहट म्लान होकर भी अम्लान थी। उस चेहरे ने उठा कर मेरी मोर अपने दोनों हाथ जोड़े। उनसे मैंने संकेत पाया कि में पूजा लू और तत्क्षण बिदा हो जाऊँ । संकेत अचूक था। उल्लंघन हो नहीं सकता था। मैं उठा और तेजी से एक ओर सरक गया। "रांड, कुलबोडन, सत्यानासन, किससे माँख लड़ा रही है ?" सब-कुछ कानों ने सुना, लेकिन आँखों ने भी बिना उधर देखे देख । लिया कि प्रौढ़ा अभिभाविका ने उसके खुले सिर के बालों को एक पंजे की मुट्ठी में पकड़ कर चेहरे को ढकेलना पौर लतियाना शुरू कर दिया है, जो कि स्पष्ट आवश्यक और उचित कार्य है। फिर क्या हुप्रा ? वही हुआ जो होना चाहिए ।. यानी वैश्य और खत्री जातियों में सम्बन्ध नहीं होना चाहिए था, नहीं हुआ । खत्री कन्या का सम्बन्ध खत्री जाति में ही होना चाहिए था; और तदनुसार विधान और सिद्धान्त की रक्षा में शीघ्रता के साथ व्यवस्था कर दी गई । वह चेहरा सदा-सदा अवतरण लेता है, निश्चय ही वह एक-रूप नहीं है, एक-रंग नहीं है । पर सदैव वह एकात्मा है। नियुक्त समय पर वह सबको दीखता है और शायद घर-घर होता है । वह चेहरा आँखों के
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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