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________________ २०२ जनेन्द्र की कहानियां [सातवाँ भाग] उसने आँख फाड़ कर मुझे देखा । बोला, "क्या ।" मैंने उसी दृढ़ता से कहा, "तुम मानते हो कि तुम उसे प्यार करते हो ? मैं कहता हूँ कि यह झूठ है !" 'झूठ है !" वह आवेश में हो पाया, बोला, "मेरा प्यार झूठ है !" मैंने और भी सख्त हो कर कहा, "और नहीं तो क्या ? नहीं तो तुम उसका विश्वास क्यों नहीं कर सकते ?" बोला, "वही तो मैं चाहता है, लेकिन ।" ''लेकिन कुछ नहीं, प्यार में 'लेकिन' को जगह नहीं होती। बोलो, तुम करते हो प्यार ? बिना किसी 'लेकिन' के करते हो ?" ___ उसने मेरी ओर देखा । पावेश की जगह जैसे उसकी आँखों में पीड़ा थी। बिना कुछ बोले, आँख उठाकर वह उसी तरह कुछ देर मुझे देखता रह गया। मैंने कहा, "सुनो, जरा अपनी अाँख बन्द करो।" । उसने पाँख बन्द नहीं की और अविश्वास से मुझे देखता रहा। मैंने कहा, "मैं बताना चाहता हूँ कि तुम प्यार नहीं करते। सिर्फ तमाशा करते हो । ज़रा प्राख को बन्द करो।" "मैं तमाशा करता हूँ !" "नहीं तो करो बन्द प्रांख।" उसने आँख बन्द की। "दोनों हाथों को आँखों के ऊपर ले लो।" उसने वैसा ही किया। अब मैंने कहना शुरू किया--"अब देखो...तुम्हारी प्रेयसी तुम्हारे सामने है ? है न ? मुस्करा रही है...और वह देखो, अब खिलखिलाकर हँस रही है ! उसको भर-पूर देखो, उससे सुन्दर कहीं कुछ है ? अंग-अंग देखो, उससे कमनीय कहीं कुछ हो सकता है ? उसकी हर भंगिमा क्या इन्द्र-धनुष का तुम्हें प्राभास नहीं देती ? क्या हँसी उसकी धूप-सी नहीं
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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