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________________ २०० जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] बोला, "...क्या ?" मैंने कहा, "देखते नहीं, यहाँ बातें कैसे हो सकती हैं ?" जैसे अब उसे भान हुआ कि वह एक पब्लिक-रेस्टरों में है और रेस्टरॉ खुले बाज़ार में है। उसने झपकती-सी निगाह से चारों ओर देखा, बोला, "ठीक है, अभी चलता हूँ।" कहकर गिलास खींचा, शराब मिलाई और एक घूट गटक कर बोला, "तुम यही विश्वास करते हो कि में नहीं कर सकता; लेकिन मैं कर सकता हूँ।...वह भी शायद यही समझती है।"-कहकर वह ज़रा हँसा और फिर कहा, "लेकिन मैं कर सकता हूँ।" भौंहें उसकी तन गई-"क्या समझते हो, मैं मज़ार बनने के लिए हूँ...तमाशा बनने के लिए हूँ ? नहीं, वह कुमार अब मैंने उसकी बाहों में हाथ डाला, कहा, "उठो ।” और वह आसानी से उठ गया और मेरे साथ चला। मैंने फिर कोई उस से बात नहीं की। टैक्सी लेकर बेकाम इधर-उधर घुमाया कि कुछ हवा लगे और वह हलका हो, पर किसी भी और बात में उसने दिलचस्पी नहीं ली, गुमसुम बना रहा और किसी भी ओर खिंचने से मानो इन्कार करता हो । आखिर वहाँ भाकर, जहाँ मैं ठहरा था, मैंने कुमार से पूछा, "कुमार, तुम क्या चाहते हो ?" ____उसने पूछा कि बतायो कि यह सब पत्र झूठे हो सकते हैं ? इतने पत्र ! और एक-एक उनमें "तुमने पढ़े भी हैं। मैंने कहा, "नहीं, झूठे क्यों होंगे ?" "तुम कहते हो कि झूठं नहीं हैं ?-फिर मैं वहाँ चार रोज़ झक मारने क्यों गया ? क्या अपने-आप गया था ? फिर भी 'और तुम कहते हो कि झूठे नहीं हैं !-सुनो, ऐसे नहीं चलेगा । ब्याह होगा, नहीं तो "लेकिन ब्याह होकर रहेगा।"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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