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________________ प्यार का तर्क प्रेम के बारे में अक्सर बातें चल जाया करती हैं । प्रेम की बात प्रेम से अलग चीज़ है । प्रेम में पड़कर अक्सर बात सूझती ही नहीं । फिर भी आदमी है कि प्रेम सहता नहीं उसकी बात करता । ऐसे वह प्रेम को मजाक बनता है । कलकत्ते में ठहरा हुआ था कि मेरे हाथ में कुमार का कार्ड दिया गया । सात-आठ वर्ष हुए, कुमार मुझे दिल्ली में मिला करता था । वह आया तो मैंने देखा कि कुमार अब ठीक वही नहीं है । काफ़ी बदल गया है । पहले इकहरा था, अब बदन भर आया है; मालूम होता है, व्यवहार में अब वह शायद कुछ ठौर-ठिकाने से है । कपड़े नई तरह के हैं और आत्मविश्वास से हीन नहीं दीखता है । कुमार ने बड़ी अभिन्नता से मुझ से भेंट की और कुछ देर बाद, जब कि मैं सकता था कि वह जाना चाहता है, उसने उठते हुए कहा, "भाई, मुझे कुछ तुम को दिखाना है और सलाह लेनी है । तुम्हें कब वख्त होगा ? घर ना सकोगे ?" मैंने मुस्करा कर पूछा, "क्या दिखाना है ? घर बसा लिया है क्या ? कोई अच्छी शकल घर पर दिखानी है ?" वह कुछ लाल पड़ आया, जल्दी से बोला, “नहीं, नहीं ।" १६६
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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