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________________ टकराहट १३ कैलाश-बल बस प्रभु है। उसके हाथ में प्रबल रहना ही हमारा लीला--वचन दीजिए कि मुझे अपनी शरण में रखेंगे। कैलाश-हम मानव दास हैं। हम अपूर्ण हैं। ईश्वर अशरणशरण है। [लीला चलते-चलते एक उच्छ्वास के साथ धरती पर बैठ जाती है।] कैलाश-क्यों-क्यों ? क्या हुआ ? लीला-( दर्द भरे स्वर में ) कुछ नहीं। मुझे छोड़िए। कैलाश-क्या है ? कहीं दर्द उठ पाया है ? लीला-हाँ, दर्द का दौरा हो पाता है। होकर फिर चला जाता है । चिन्ता न कीजिए। आप जाइए। [छाती अपनी मसोसती है।] कैलाश-पुराना रोग है ? शायद हृदय का रोग है। लीला-हाँ, हृदय का रोग। कई बरस से है । प्राह ! [कराह के साथ दोनों हाथों से दिल को दबाती है ।] कैलाश-देखू, पीठ पर ले सकता हूँ क्या ? देखो ऐसे... [उसे उठाने का प्रयास करते हैं और बताते हैं।] लीला---नहीं। आप जाएँ। मैं कुछ देर में आप पहुँच जाऊँगी। आपका प्रार्थना का समय आ गया है। कैलाश-हाँ, वह समय तो पा रहा है। अच्छा, ( चलते हुए) में जाकर किसी को भेजू ? लीला-नहीं। मैं हाथ जोड़ती हूँ, नहीं। ___ कैलाश-अच्छा। प्रार्थना के बाद मैं ही आ जाऊँगा। इस बीच तुम ठीक होकर चली आनो तो मुझे पीछे मिलना। तुम्हारा यह रोग असाध्य होना चाहिए।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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