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________________ चालीस रुपये १७३ सफाई तो अपनी चाहिए ! इसलिए जनाब ने कोट को जगह-जगह से नश्तर देकर चाक-चाक कर दिया । पर आखिर तक उन्हें तसल्ली नहीं हुई कि कलावन्त की खूबी का सौवां हिस्सा भी उनको तराश में आ सकी है । तब सोचा था, कोई उस्ताद गिरहकट मिले तो उससे हस्तलाघव सीखेंगे। लेकिन यह क्या कि गिड़गिड़ा कर मांगा जा रहा है। उन्होंने चेहरे को सख्त किया, कहा, "क्या है ? हटो, हटो।" पर स्त्री हटी नहीं, बल्कि और पीछे लग गई। ताँगे में बैठते-बैठते वागीश ने झल्लाकर कहा, "क्या है ? पैसा पास नहीं है । चलो रास्ता देखो।" ताँगे में बैठकर आधे घघट में से उसका चेहरा दिखाई दिया । ठोडी में गोदना गुदा था । उम्र होगी पच्चीस वर्ष । बदसूरत न थी, खूबसूरत तो थी ही नहीं। नेक-चलन न होगी। और गोद के चिपटे बच्चे के सिर पर खाज के दाग थे, हाथों पर खरोंच। वागीश ने डपट कर कहा, "चलो हटो, जाओ।" ताँगे वाले ने कहा, "चलू बाबूजी ?" .' स्त्री ने हाथ फैलाया, बोली, "तुम्हारी औलाद जिये बाबू । धन दौलत मिले । बच्चा भूखा है । उसका बाप नहीं है....!" "तो माँगती क्यों है ? काम कर ! यह ताँगा क्यों पकड़ रखा है ? छोड़ हट।" "क्या काम बाबू ? तुम्हारे औलाद-पुत्तर जीयें !" "काम करो-काम । हराम का नहीं खाते हैं।" इस हराम और काम के सिद्धान्त को वह खुद नहीं समझ पाता था। इससे जूते के अन्दर बँधे उसके पैर स्त्री ने पकड़े तो संकट में उन्हें पीछे खींचते हुए वह घबरा कर बोला, “हे, यह क्या करती हो ? बोलो, काम करने को तैयार हो ?"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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